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Animals in Jungle
बिज्जू (Paradoxurus hermaphroditus)
“बिज्जू” एक रात्रिचर प्राणी है जो दिन में कोई सुरक्षित जगह ढूँढकर सोया रहता है तथा रात में भोजन की तलाश में निकल पड़ता है। बिज्जू दिन में किसी दरार, वृक्षों के खोखलों, नालियों की अँधेरी जगहों आदि में सपरिवार या अकेला छिप कर सोया रहता है। क्या आपने इनको देखा है? यदि नहीं, तो आप इसे चित्रकूट नगर में स्थित जंगल में देख सकते है। जंगल में कॉमन पाम सिवेट प्रजाति का बिज्जू है। इस प्रजाति के बिज्जू विभिन्न प्रकार के आवासों में रह सकते हैं। ये स्वाभाविक रूप से समशीतोष्ण और उष्णकटिबंधीय जंगलों में रहते हैं, लेकिन विकसित क्षेत्रों में वे पार्क, उपनगरीय उद्यान, वृक्षारोपण और फलों के बागों में भी पाये जाते हैं।
ये सिवेट रहने की जगह कैसे ढूँढते हैं? ये ज्यादातर उन क्षेत्रों में रहते हैं जहाँ ये आराम कर सकते हैं और इनको भोजन मिलता हो। ये प्रायः बिलों में रहते हैं, इसलिए यह अपना अधिकांश समय फलों के पेड़ों जैसे अंजीर के पेड़ों में बिताते हैं। पेड़ों की घनी कैनोपीज़ और लताओं के साथ-साथ ऊँचे पेड़ों को प्राथमिकता देते हैं। इसमें जंगल में रहने वाले कई जन्तु सदस्यों से विभिन्न वे कौनसे गुण हैं जिसके कारण हम इन्हें पहचान सकते है? इनकी आँखों के ऊपर व नीचे सफ़ेद धब्बे होते हैं। “बिज्जू” सर्वाहारी प्राणी है जो फल, पक्षी, चूहे, पक्षियों के अण्डे आदि खा लेता है। यह मीठे का भी शौकीन होता है। मीठे फलों के अलावा गन्ना व गुड़ बड़े चाव से खाता है एवं गुड़ खाने के लालच में मौका पड़ने पर दुकानों में घुस जाता है। बिज्जू वृक्षों पर भी आसानी से चढ़ जाता है। इस स्वभाव से मीठे फल ढूँढने व खाने में सहजता बनी रहती है।
बिज्जू बिल्लियों के नजदीकी प्राणी हैं लेकिन इनका थूथन लम्बा व नाख़ून निरन्तर बाहर निकले रहते हैं। लोगों में डर रहता है कि बिज्जू सोये हुए छोटे बच्चों को रात को उठा ले जाता है, यह सही नहीं है। बहुत छोटे नवजात शिशु को “चूहा” समझ कर बिज्जू व घरेलू बिल्ली आक्रमण कर सकते हैं लेकिन बच्चों के कुछ बड़े हो जाने पर बिज्जू से इनको कोई खतरा नहीं रहता।
नेवला (Herpestes edwardsii)
“नेवला” दिनकारी है, दिन में भोजन की तलाश में सक्रिय रहता है तथा रात्रि में सो जाता है। नेवला माँसाहारी प्राणी होता है जो अपने से बड़े कद के शिकार को भी मार लेता है। चित्रकूट नगर में स्थित जंगल में भूरा नेवला और उसका परिवार कई सालों से अठखेलियाँ कर रहा है। हमें ऐसा लगता है जब जंगल और घना हो जायेगा, उस समय काली पूँछ का नेवला भी यहाँ खेलने आ जायेगा।
यह स्वभाविक रूप से समशीतोष्ण उष्णकटिबंधीय (temperate and tropical), और स्थलीय क्षेत्रों में पाया जाता है। सामान्यतः यह घने जंगली क्षेत्रों, खेतों, झाड़ियों, घास के मैदानों में देखा जाता है। क्या आपको मालूम है, यह दिन के सूरज से बचने के लिए जमीन या खोखले पेड़ों में छेद करके सोता है।
नेवला छोटे पैरों वाला लम्बा प्राणी है जिसकी पूँछ झबरी व शरीर जितनी ही लम्बी होती है। नेवले की आँखें मणियों की तरह चमकदार व उभरी होती है। इनके कान छोटे, अर्द्ध–वृत्ताकार व फर में छिपे रहते हैं। ऊँचाई बहुत कम होने से इन्हें ज्यादा दूर तक नहीं दिखता अतः ये चलते हुए पिछले पैरों पर उकडू खड़े होकर दूर का जायजा लेते हैं।
नेवला वृक्षों व दीवारों पर भी चढ़ जाता हैं। यह मेंढक, साँप, पक्षी, उनके अण्डे, गोहे, चूहे आदि पकड़ कर मार देता हैं एवं उन्हें खा जाता है। ये जहरीले साँप को भी मारने की क्षमता रखता है।
जरख (Hyaena hyaena)
“जरख” कुत्ता वर्ग के प्राणियों से काफी समानता रखते हैं लेकिन यह कुत्ता वर्ग का प्राणी न होकर स्वतंत्र वर्ग, हायानिडि का सदस्य है। चित्रकूट नगर में स्थित जंगल जैसे पहाड़ी क्षेत्रों में यह प्रजाति अधिकांशतः दिखाई देती है। कहीं आप इसको पहचानने में भ्रमित तो नहीं हो जाओगे। चलो इसको पहचानने में हम आपकी मदद करते है। यह आगे से ऊँचा व पीछे से नीचा होता है। इसकी गर्दन व पीठ पर खड़े बालों की अयाल (crest) होती है। इसके शरीर पर काली धारियाँ होने से गलती से कई बार लोग इसे बाघ समझ लेते हैं।
जरख को लकड़बग्घा नाम से भी जाना जाता है। ये पूर्णरूप से रात्रिचर हैं। दिन को किसी गुफा या सुरक्षित स्थान पर सोया रहता है तथा रात्रि में भोजन की तलाश में निकलता है। यह प्राय: बाघ या तेंदुए के पीछे–पीछे एक सुरक्षित दूरी बना कर चलता है तथा उनके द्वारा किये गये शिकार के (जब वे पेट भरकर खाने के बाद इधर–उधर होते हैं) बचे हुये भाग को खाकर सफा करता है। अतः इनको प्रकृति का अपमार्जक (scavenger) भी कहते हैं। बाघ व तेंदुए के पीछे चलते रहने की प्रकृति में इसे “अपमार्जक (scavenger) कैंप फॉलोवर” भी कहा जाता है।
यदि बाघ-तेंदुए अपने शिकार का पूरा माँस भी खा जाते हैं तब भी जरख निराश नहीं होते तथा मरे हुए प्राणी की हड्डियों को चबा कर पेट भर लेता है। इसके शक्तिशाली जबड़े व तीखे दाँत, इसके भोज्य प्राणियों की हड्डियों तक को काट व पीस देते हैं। हड्डियों के अन्दर पोषक अस्थिमज्जा (bone marrow) इसे भरपूर पोषण देती है। बाघ-तेंदुए अस्थिमज्जा तक पहुँच नहीं बना सकते हैं लेकिन जरख बड़े प्राणी की हड्डी को भी चबा कर अस्थिमज्जा निकाल सकता है। चूँकि यह अस्थियाँ खाने वाला मुर्दाखोर है अतः इसका मल सफेद रंग का होता है जिसमें अस्थियों के छोटे – छोटे टुकड़े होते हैं। जरख प्राकृतिक गुफाओं या स्वयं के द्वारा खोदी गुफा में निवास कर लेता है। इसकी गुफा के आसपास तरह–तरह के जीवों की हड्डियाँ पड़ी मिलती है।
गीदड़ (Caris aureus)
कुत्ता वर्ग का सदस्य “गीदड़” भी पहाड़ी क्षेत्रों में रहना पसंद करता है, जैसे चित्रकूट नगर में स्थित जंगल।
यह एक जाना-पहचाना प्राणी है जो संध्या समय हुआँ-हुआँ-हुआँ की आवाज़ करता है। वस्तुतः यह एक दूसरे से संपर्क का तरीका है। गीदड़, दल (pack) बना कर या जोड़े में रहता हैं। रात के अलावा ये सुबह-शाम भी सक्रिय मिल जाता है। ये छोटे शिकार को चारों तरफ से घेरकर अपने ताकतवर जबड़ों से पकड़ कर अलग-अलग दिशा में खींच कर फाड़ देता है। माँसाहारी भोजन के अलावा ये फल जैसे बेर, तरबूज, खरबूजे, काचरी, मक्की आदि भी खा लेता है। कहीं मृत जानवर पड़ा हो, उसे भी खा लेता है। इस तरह ये सर्वाहारी श्रेणी का प्राणी हैं। गीदड़ माँद बनाता है, उसमें बच्चों को जन्म देता हैं। प्रारंभ में शिशु केवल माँ का दूध पीते हैं लेकिन जब कुछ बड़े हो जाते हैं, माता-पिता खाया हुआ माँस माँद के आसपास जगह-जगह ढेर के रूप में उलटी कर देता हैं। बच्चे बिना लडे-भिड़े अलग-अलग ढेरी को अपना भोजन बना लेते हैं। ढेरियों पर भोजन करते समय बढते बच्चे कई बार छोटी–मोटी लड़ाईयाँ भी कर लेते हैं। वस्तुतः यह भविष्य के लिये तैयार होने की शिक्षा का हिस्सा होता है।
ख़रगोश (Lepus nigricollis)
“खरगोश” जंगल में रहने वाला एक शाकाहारी भोला-भाला, थोड़ा शरारती और तेज दौड़ लगाने वाला स्तनधारी है। इसके कान बड़े, पूँछ छोटी एवं आँखे उभरी होती हैं। इससे न केवल सामने से आने वाले खतरे बल्कि पीछे से आने वाले खतरे की भी सूचना मिल जाती है।
खरगोश जंगल की झाड़ियों के नीचे व बड़ी घास में छुपा रहता है। आस–पास के वातावरण में ये इस तरह अदृश्य रहता है कि कई बार तो एकदम इनके पास पहुँचने पर जब वे हड़बड़ा कर भागता है तब ही उनका पता चलता है। पालतू खरगोश अपने बच्चों को बिलों में जन्म देता है लेकिन जंगली खरगोश बच्चों को भूमि की सतह पर ही घास–फूस में जन्म देता है। बच्चों की आँखें जन्म के समय ही खुली होती हैं एवं शरीर पर नर्म बाल भी होते हैं। माँ का दूध पीने के अलावा शिशु नर्म घास भी खाते हैं। खरगोश मेंगणी करता है। सुबह उठ कर ये रात कि मेंगणी को नाश्ते के रूप में खा जाता है। दिन में जब मेंगणी करते हैं तो उसे नहीं खाता। अपने भोजन को दो बार खाकर पोषक तत्वों को पूर्ण रूप से अवशोषित कर लेता है इससे खाने की बर्बादी नहीं होती। खरगोश घास के मैदान व झाडीदार क्षेत्र में निवास करता है। आवास बर्बादी से खरगोशों की संख्या में तेजी से गिरावट आ रही है। लोग खरगोश का शिकार भी कर लेते हैं जो कानूनन अपराध है। खरगोश को प्रकृति में तेंदुए, गीदड़, जंगली बिल्ली, अजगर, बाज आदि खाते हैं। खरगोश जब बचाव हेतु तेज दौड लगाता है तो शरीर में उत्पन्न गर्मी को बड़े व चौड़े तथा पतले कानों से तेजी से बाहर निकाल कर शरीर को ठंडा रखता हैं।
छछुन्दर (Suncus murinus)
चलिये हम आपको जंगल में रहने वाले एक और सदस्य से मिलवाते है। चित्रकूट नगर में स्थित जंगल में छोटे स्तनी “छछुन्दर” को भी देखा जा सकता है। यह प्रजाति समशीतोष्ण, उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के वन क्षेत्रों में, कृषि भूमि में और मानव गतिविधि से जुड़े क्षेत्रों में पाई जाती है। यह नुकीली थूथन, मोटी पूँछ वाला राख के रंग का रात्रिचर प्राणी है जो कीड़े–मकोड़े खाता है।
बच्चे के पीछे एक बच्चा “बच्चों के खेल वाली रेलगाड़ी” सी बना कर चलता है। पकडे जाने पर ये तेज दुर्गन्ध छोड़ता है जिससे परेशान होकर इनके शत्रु भी इन से दूर रहते हैं। लोग इसे गलती से चूहा समझते हैं लेकिन यह चूहा नहीं है तथा चूहों का शिकार कर उनको खा जाता है। छछुन्दर, मेंढक व छिपकली आदि भी खा लेता है।
Animals in Jungle
बिज्जू (Paradoxurus hermaphroditus)
“बिज्जू” एक रात्रिचर प्राणी है जो दिन में कोई सुरक्षित जगह ढूँढकर सोया रहता है तथा रात में भोजन की तलाश में निकल पड़ता है। बिज्जू दिन में किसी दरार, वृक्षों के खोखलों, नालियों की अँधेरी जगहों आदि में सपरिवार या अकेला छिप कर सोया रहता है। क्या आपने इनको देखा है? यदि नहीं, तो आप इसे चित्रकूट नगर में स्थित जंगल में देख सकते है। जंगल में कॉमन पाम सिवेट प्रजाति का बिज्जू है। इस प्रजाति के बिज्जू विभिन्न प्रकार के आवासों में रह सकते हैं। ये स्वाभाविक रूप से समशीतोष्ण और उष्णकटिबंधीय जंगलों में रहते हैं, लेकिन विकसित क्षेत्रों में वे पार्क, उपनगरीय उद्यान, वृक्षारोपण और फलों के बागों में भी पाये जाते हैं।
ये सिवेट रहने की जगह कैसे ढूँढते हैं? ये ज्यादातर उन क्षेत्रों में रहते हैं जहाँ ये आराम कर सकते हैं और इनको भोजन मिलता हो। ये प्रायः बिलों में रहते हैं, इसलिए यह अपना अधिकांश समय फलों के पेड़ों जैसे अंजीर के पेड़ों में बिताते हैं। पेड़ों की घनी कैनोपीज़ और लताओं के साथ-साथ ऊँचे पेड़ों को प्राथमिकता देते हैं। इसमें जंगल में रहने वाले कई जन्तु सदस्यों से विभिन्न वे कौनसे गुण हैं जिसके कारण हम इन्हें पहचान सकते है? इनकी आँखों के ऊपर व नीचे सफ़ेद धब्बे होते हैं। “बिज्जू” सर्वाहारी प्राणी है जो फल, पक्षी, चूहे, पक्षियों के अण्डे आदि खा लेता है। यह मीठे का भी शौकीन होता है। मीठे फलों के अलावा गन्ना व गुड़ बड़े चाव से खाता है एवं गुड़ खाने के लालच में मौका पड़ने पर दुकानों में घुस जाता है। बिज्जू वृक्षों पर भी आसानी से चढ़ जाता है। इस स्वभाव से मीठे फल ढूँढने व खाने में सहजता बनी रहती है।
बिज्जू बिल्लियों के नजदीकी प्राणी हैं लेकिन इनका थूथन लम्बा व नाख़ून निरन्तर बाहर निकले रहते हैं। लोगों में डर रहता है कि बिज्जू सोये हुए छोटे बच्चों को रात को उठा ले जाता है, यह सही नहीं है। बहुत छोटे नवजात शिशु को “चूहा” समझ कर बिज्जू व घरेलू बिल्ली आक्रमण कर सकते हैं लेकिन बच्चों के कुछ बड़े हो जाने पर बिज्जू से इनको कोई खतरा नहीं रहता।
नेवला (Herpestes edwardsii)
“नेवला” दिनकारी है, दिन में भोजन की तलाश में सक्रिय रहता है तथा रात्रि में सो जाता है। नेवला माँसाहारी प्राणी होता है जो अपने से बड़े कद के शिकार को भी मार लेता है। चित्रकूट नगर में स्थित जंगल में भूरा नेवला और उसका परिवार कई सालों से अठखेलियाँ कर रहा है। हमें ऐसा लगता है जब जंगल और घना हो जायेगा, उस समय काली पूँछ का नेवला भी यहाँ खेलने आ जायेगा।
यह स्वभाविक रूप से समशीतोष्ण उष्णकटिबंधीय (temperate and tropical), और स्थलीय क्षेत्रों में पाया जाता है। सामान्यतः यह घने जंगली क्षेत्रों, खेतों, झाड़ियों, घास के मैदानों में देखा जाता है। क्या आपको मालूम है, यह दिन के सूरज से बचने के लिए जमीन या खोखले पेड़ों में छेद करके सोता है।
नेवला छोटे पैरों वाला लम्बा प्राणी है जिसकी पूँछ झबरी व शरीर जितनी ही लम्बी होती है। नेवले की आँखें मणियों की तरह चमकदार व उभरी होती है। इनके कान छोटे, अर्द्ध–वृत्ताकार व फर में छिपे रहते हैं। ऊँचाई बहुत कम होने से इन्हें ज्यादा दूर तक नहीं दिखता अतः ये चलते हुए पिछले पैरों पर उकडू खड़े होकर दूर का जायजा लेते हैं।
नेवला वृक्षों व दीवारों पर भी चढ़ जाता हैं। यह मेंढक, साँप, पक्षी, उनके अण्डे, गोहे, चूहे आदि पकड़ कर मार देता हैं एवं उन्हें खा जाता है। ये जहरीले साँप को भी मारने की क्षमता रखता है।
जरख (Hyaena hyaena)
“जरख” कुत्ता वर्ग के प्राणियों से काफी समानता रखते हैं लेकिन यह कुत्ता वर्ग का प्राणी न होकर स्वतंत्र वर्ग, हायानिडि का सदस्य है। चित्रकूट नगर में स्थित जंगल जैसे पहाड़ी क्षेत्रों में यह प्रजाति अधिकांशतः दिखाई देती है। कहीं आप इसको पहचानने में भ्रमित तो नहीं हो जाओगे। चलो इसको पहचानने में हम आपकी मदद करते है। यह आगे से ऊँचा व पीछे से नीचा होता है। इसकी गर्दन व पीठ पर खड़े बालों की अयाल (crest) होती है। इसके शरीर पर काली धारियाँ होने से गलती से कई बार लोग इसे बाघ समझ लेते हैं।
जरख को लकड़बग्घा नाम से भी जाना जाता है। ये पूर्णरूप से रात्रिचर हैं। दिन को किसी गुफा या सुरक्षित स्थान पर सोया रहता है तथा रात्रि में भोजन की तलाश में निकलता है। यह प्राय: बाघ या तेंदुए के पीछे–पीछे एक सुरक्षित दूरी बना कर चलता है तथा उनके द्वारा किये गये शिकार के (जब वे पेट भरकर खाने के बाद इधर–उधर होते हैं) बचे हुये भाग को खाकर सफा करता है। अतः इनको प्रकृति का अपमार्जक (scavenger) भी कहते हैं। बाघ व तेंदुए के पीछे चलते रहने की प्रकृति में इसे “अपमार्जक (scavenger) कैंप फॉलोवर” भी कहा जाता है।
यदि बाघ-तेंदुए अपने शिकार का पूरा माँस भी खा जाते हैं तब भी जरख निराश नहीं होते तथा मरे हुए प्राणी की हड्डियों को चबा कर पेट भर लेता है। इसके शक्तिशाली जबड़े व तीखे दाँत, इसके भोज्य प्राणियों की हड्डियों तक को काट व पीस देते हैं। हड्डियों के अन्दर पोषक अस्थिमज्जा (bone marrow) इसे भरपूर पोषण देती है। बाघ-तेंदुए अस्थिमज्जा तक पहुँच नहीं बना सकते हैं लेकिन जरख बड़े प्राणी की हड्डी को भी चबा कर अस्थिमज्जा निकाल सकता है। चूँकि यह अस्थियाँ खाने वाला मुर्दाखोर है अतः इसका मल सफेद रंग का होता है जिसमें अस्थियों के छोटे – छोटे टुकड़े होते हैं। जरख प्राकृतिक गुफाओं या स्वयं के द्वारा खोदी गुफा में निवास कर लेता है। इसकी गुफा के आसपास तरह–तरह के जीवों की हड्डियाँ पड़ी मिलती है।
गीदड़ (Caris aureus)
कुत्ता वर्ग का सदस्य “गीदड़” भी पहाड़ी क्षेत्रों में रहना पसंद करता है, जैसे चित्रकूट नगर में स्थित जंगल।
यह एक जाना-पहचाना प्राणी है जो संध्या समय हुआँ-हुआँ-हुआँ की आवाज़ करता है। वस्तुतः यह एक दूसरे से संपर्क का तरीका है। गीदड़, दल (pack) बना कर या जोड़े में रहता हैं। रात के अलावा ये सुबह-शाम भी सक्रिय मिल जाता है। ये छोटे शिकार को चारों तरफ से घेरकर अपने ताकतवर जबड़ों से पकड़ कर अलग-अलग दिशा में खींच कर फाड़ देता है। माँसाहारी भोजन के अलावा ये फल जैसे बेर, तरबूज, खरबूजे, काचरी, मक्की आदि भी खा लेता है। कहीं मृत जानवर पड़ा हो, उसे भी खा लेता है। इस तरह ये सर्वाहारी श्रेणी का प्राणी हैं। गीदड़ माँद बनाता है, उसमें बच्चों को जन्म देता हैं। प्रारंभ में शिशु केवल माँ का दूध पीते हैं लेकिन जब कुछ बड़े हो जाते हैं, माता-पिता खाया हुआ माँस माँद के आसपास जगह-जगह ढेर के रूप में उलटी कर देता हैं। बच्चे बिना लडे-भिड़े अलग-अलग ढेरी को अपना भोजन बना लेते हैं। ढेरियों पर भोजन करते समय बढते बच्चे कई बार छोटी–मोटी लड़ाईयाँ भी कर लेते हैं। वस्तुतः यह भविष्य के लिये तैयार होने की शिक्षा का हिस्सा होता है।
ख़रगोश (Lepus nigricollis)
“खरगोश” जंगल में रहने वाला एक शाकाहारी भोला-भाला, थोड़ा शरारती और तेज दौड़ लगाने वाला स्तनधारी है। इसके कान बड़े, पूँछ छोटी एवं आँखे उभरी होती हैं। इससे न केवल सामने से आने वाले खतरे बल्कि पीछे से आने वाले खतरे की भी सूचना मिल जाती है।
खरगोश जंगल की झाड़ियों के नीचे व बड़ी घास में छुपा रहता है। आस–पास के वातावरण में ये इस तरह अदृश्य रहता है कि कई बार तो एकदम इनके पास पहुँचने पर जब वे हड़बड़ा कर भागता है तब ही उनका पता चलता है। पालतू खरगोश अपने बच्चों को बिलों में जन्म देता है लेकिन जंगली खरगोश बच्चों को भूमि की सतह पर ही घास–फूस में जन्म देता है। बच्चों की आँखें जन्म के समय ही खुली होती हैं एवं शरीर पर नर्म बाल भी होते हैं। माँ का दूध पीने के अलावा शिशु नर्म घास भी खाते हैं। खरगोश मेंगणी करता है। सुबह उठ कर ये रात कि मेंगणी को नाश्ते के रूप में खा जाता है। दिन में जब मेंगणी करते हैं तो उसे नहीं खाता। अपने भोजन को दो बार खाकर पोषक तत्वों को पूर्ण रूप से अवशोषित कर लेता है इससे खाने की बर्बादी नहीं होती। खरगोश घास के मैदान व झाडीदार क्षेत्र में निवास करता है। आवास बर्बादी से खरगोशों की संख्या में तेजी से गिरावट आ रही है। लोग खरगोश का शिकार भी कर लेते हैं जो कानूनन अपराध है। खरगोश को प्रकृति में तेंदुए, गीदड़, जंगली बिल्ली, अजगर, बाज आदि खाते हैं। खरगोश जब बचाव हेतु तेज दौड लगाता है तो शरीर में उत्पन्न गर्मी को बड़े व चौड़े तथा पतले कानों से तेजी से बाहर निकाल कर शरीर को ठंडा रखता हैं।
छछुन्दर (Suncus murinus)
चलिये हम आपको जंगल में रहने वाले एक और सदस्य से मिलवाते है। चित्रकूट नगर में स्थित जंगल में छोटे स्तनी “छछुन्दर” को भी देखा जा सकता है। यह प्रजाति समशीतोष्ण, उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के वन क्षेत्रों में, कृषि भूमि में और मानव गतिविधि से जुड़े क्षेत्रों में पाई जाती है। यह नुकीली थूथन, मोटी पूँछ वाला राख के रंग का रात्रिचर प्राणी है जो कीड़े–मकोड़े खाता है।
बच्चे के पीछे एक बच्चा “बच्चों के खेल वाली रेलगाड़ी” सी बना कर चलता है। पकडे जाने पर ये तेज दुर्गन्ध छोड़ता है जिससे परेशान होकर इनके शत्रु भी इन से दूर रहते हैं। लोग इसे गलती से चूहा समझते हैं लेकिन यह चूहा नहीं है तथा चूहों का शिकार कर उनको खा जाता है। छछुन्दर, मेंढक व छिपकली आदि भी खा लेता है।